1930 में लिखे प्रेमचंद के नाटक सद्गति में दिखाई दलितों की पीड़ा
कर्मकांड, जाति और धर्म सम्मत उत्पीडन को लेकर कटाक्ष करते नाटक सद्गति का मंचन शहीद भवन के सभागार में रविवार को किया गया। यह कहानी भले ही मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में लिखी हो लेकिन इस कहानी जैसी कितनी ही घटनाएं आज भी समाज का घिनौना चेहरा उजागर करती रहती हैं। प्रेमचंद की श्रेष्ठ रचनाओं में से एक सद्गति भारत की तत्कालीन वर्णाश्रमधर्मी सामाजिक व्यवस्था का एक कटु लेकिन सटीक चित्र प्रस्तुत करता है। सामाजिक विषमताओं और जात -पात का प्रतिनिधित्व करती लकड़ी की एक मोटी गांठ है जिसे पिछड़ी जाति का एक दुखिया अपने दुर्बल हाथों से चीरने का असफल प्रयास कर रहा है। दुखिया अपनी बेटी की सगाई के लिए मुहूर्त निकलवाने पहुंचता है लेकिन पंडित घासीराम के घर पर दिन भर बेगार करने में विवश हो जाता है। अछूत होने के कारण पानी तक नहीं मांग पाता। अंत में वही लकड़ी की मोटी गांठ उस बेचारे जान ले लेती है। पंडित-पंडिताइन इस बात से विचलित नहीं हैं कि उनके अमानवीय व्यवहार ने एक गरीब की जान ले डाली है, बल्कि वे इस बात से परेशान हैं कि अछूत की लाश को ब्राह्मण कैसे छुएगा। नाटक के माध्यम से संदेश देने का प्रयास किया गया कि स्वतंत्रता मिलने के 75 वर्ष बाद भी कर्मकांड, जाति और धर्म सम्मत दलित उत्पीडऩआज भी जारी है। नाटक की प्रस्तुति को भावपूर्ण बनाने के लिए सेट पर घास के गठ्ठे, लड़कियां व ग्रामीण परिवेश को प्रॉप्स की मदद से दिखाया गया। कलाकारों का अभिनय भी सराहा गया।
डायरेक्टर्स कट
गरीब व अनुसूचित जाति-जनजाति को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है इसे नाट्य मंचन के जरिए बुंदेली भाषा में मंचित किया गया। वही मंच पर असली 10 फीट का पेड़ लगाया गया, जिसके आसपास नाट्य प्रस्तुति हुई।