सरकार को था कोर्ट में विवाद का डर इसलिए गैस कांड पर बनी ‘शीशों का मसीहा 38 साल से आर्काइव्स में

मप्र सरकार ने ही बनवाई थी डॉक्यूमेंट्री, डायलॉग पर थी आपत्ति

सरकार को था कोर्ट में विवाद का डर इसलिए गैस कांड पर बनी ‘शीशों का मसीहा 38 साल से आर्काइव्स में

भोपाल। विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक त्रासदी भोपाल गैस कांड पर ‘द रेलवे मैन’ वेब सीरीज इन दिनों सुर्खियों में है। भोपाल में जहरीली गैस ‘मिक’ (मिथाइल आइसो साइनेट) रिसाव दुर्घटना की पृष्ठभूमि पर आधारित इस वेब सीरीज को ‘रियलिस्टिक’ बताया जा रहा है। लेकिन, 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात गैस हादसे के चंद दिनों बाद ही प्रसिद्ध फिल्मकार मुजफ्फर अली द्वारा भोपाल की गैस पीड़ित बस्तियों में घूम-घूम कर बनाई गई डाक्यूमेंट्री ‘शीशों का मसीहा’ (कांच का देवता) 38 साल से डिब्बा बंद पड़ी है। मध्य प्रदेश सरकार ने ही यह डाक्यूमेंट्री बनवाई थी, लेकिन देखने के बाद आज तक आर्काइव्स में ही रखी है। सरकार इस बात से डर गई कि इसमें पीड़ितों के डायलॉग (नर्मदा में लाशें फेंकने) से कहीं कोर्ट में दिक्कत न हो। तत्कालीन सरकार ने इसे अपने ‘आर्काइव’ में पटक दिया। मौजूदा सरकार ने भी दो दशक में फिल्म की सुध नहीं ली। फिल्मकार मुजफ्फर अली ने सरकार से मांग की है कि 4 दशक बीतने को हैं ‘गैस कांड’ इतिहास बन चुका है। ‘शीशों का मसीहा’ का सार्वजनिक प्रसारण कराएं। इस ऐतिहासिक डाक्यूमेंट्री की सबसे बड़ी ताकत और खासियत यही है कि इसके सभी पात्र गैस हादसे के पीड़ित हैं। घटना की कहानी उनकी ही जुबानी है। पूरी फिल्म के बैक ग्राउंड में प्रसिद्ध उर्दू कवि फैज अहमद फैज की चर्चित नज्म ‘शीशों का मसीहा...’ चलती रहती है। दुनिया की भीषणतम दुर्घटना, जिसमें 15 हजार से ज्यादा लोगों की जान चली गई उसे बड़े ही कलात्मक और खूबसूरत अंदाज में इस नज्म के साथ पिरोया गया है। इसे गैस त्रासदी की पहली बरसी पर दिखाया जाना था। लेकिन, डॉक्यूमेंट्री आज तक सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल रखी है। फिल्मकार मुजफ्फर अली का कैमरा पूरी बारीकी से उनके मनोभावों को इस जीवंत दस्तावेज में कैद करता है।

हादसे के बीच जन्मी बच्ची

‘पीपुल्स समाचार’ के इस प्रतिनिधि को ‘शीशों का मसीहा’ डॉक्यूमेंट्री देखने का अवसर मिला है। डॉक्यूमेंट्री की शुरुआत सूर्योदय के साथ भोपाल के कब्रिस्तान में बैठे एक उदास शख्स पर फोकस के साथ शुरू होती है। गैस कांड की रात जन्मी बच्ची ‘रानी’ की पहली सालगिरह और सूर्यास्त के साथ फिल्म का अंत होता है। पृष्ठभूमि में नज्म के सुरीले बोल चलते रहते हैं। इस बीच 9-10 पीड़ित महिला-पुरुष भावुकता के साथ ही दिल दहलाने वाली घटना की आप-बीती सुनाते हैं।

निर्देशक अली सरकार को लिखेंगे पत्र

‘शीशों का मसीहा’ बनाने की प्रेरणा कैसे और कहां से मिली?

  •  दरअसल, मैंने सरकार के लिए ग्वालियर और चंदेरी पर फिल्म बनाई थीं। गैस त्रासदी के बाद मैं भोपाल आया था, तभी आईएएस अधिकारी हर्षमंदर ने यह प्रस्ताव दिया। फैज साहब की नज्म इस पर सटीक बैठी।

यह फिल्म अब तक डिब्बे में बंद है, आपको दुख नहीं हुआ? 

  • सरकार ने मुझे पूरा पेमेंट कर दिया था। फिल्म मैंने उन्हें सौंप दी। रिलीज नहीं होने का दुख है।

‘द रेलवे मैन’ वेब सीरीज की चर्चा है, आप क्या कहेंग

पद्म विभूषण और राजीव गांधी सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित फिल्मकार मुजफ्फर अली (79) ने कई चर्चित फिल्में बनाईं, लेकिन ‘उमराव जान’ से उन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि मिली। मप्र सरकार के लिए उन्होंने ‘ग्वालियर’ व ‘चंदेरी’ पर डॉक्यूमेंट्री भी बनाई। 

मैं सरकार को पत्र लिख रहा हूं कि यह सब कुछ अब इतिहास का हिस्सा है। पब्लिक के लिए यह डॉक्यूमेंट्री रिलीज करा दें।

दर्द : बच्चों को हंसते-खेलते छोड़ गया था, मुर्दाघर में मिले

हादसे में बचा एक व्यक्ति कहता है कि कई शवों को नर्मदा में बहा दिया गया। गाड़ी ड्राइवर बताता है कि दोपहर में उसके बच्चों ने हंसतेखे लते दरवाजे से उसे विदा किया था। दूसरे दिन उसे बच्चे मुर्दाघर में ढूंढने पड़े। एक पीड़ित कहता है कि उसके बेटे-बेटी के शव 108, 140 और 151 नंबर पर थे। ये भी है फिल्म में: भोपाल रेलवे स्टेशन, यूनियन कार्बाइड परिसर, आॅपरेशन फैथ, राहत शिविर, हत्यारी गैस का प्लांट और चैंबर, भोपाल के पुराने हेरिटेज भवन, बस्तियां और वीरान पड़ी शहर की खूबसूरत वादियां।