खगोल विज्ञान को समझने सभी विषयों का ज्ञान आवश्यक : डॉ. के. कस्तूरीरंगन
इंदौर। श्री वैष्णव विद्यापीठ विश्वविद्यालय ने शुक्रवार को सातवें आर्यभट्ट मेमोरियल ओरेशन का आयोजन किया। इस अवसर के मुख्य अतिथि और वक्ता पद्म विभूषण डॉ. के. कस्तूरीरंगन (प्रख्यात अंतरिक्ष वैज्ञानिक) थे। कार्यक्रम की शुरूआत दीप प्रज्ज्वलन और सरस्वती वंदना से हुई। डॉ. उपिंदर धर कुलपति श्री वैष्णव विद्यापीठ विश्वविद्यालय, ने उपस्थित अथितियों का स्वागत करते हुए कहा कि व्यावसायिक और पारंपरिक शिक्षा क्षेत्रों के बीच संतुलन हमेशा विश्वविद्यालय का मिशन रहा है। विश्वविद्यालय युवाओं को विज्ञान के बारे में जागरूक करने के लिए समर्पित है। कुलपति ने अपने वक्तव्य को भारत के वैज्ञानिकों को सर्मर्पित किया। कुलपति ने आर्यभट्ट की खोज का उद्धरण देते हुए कहा कि वर्षों पहले वैज्ञानिक बिना किसी आधुनिक सुविधा के सफल अनुसंधान करते थे, जो कि आज के वैज्ञानिक सभी संसाधनों के साथ उतनी उत्कृष्ता के साथ कर पाते है।
विश्वविद्यालय के कुलाधिपति पुरुषोत्तमदास पसारी ने अपने संबोधन में बताया कि विश्वविद्यालय की स्थापना समाज के वंचित वर्ग को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने के मुख्य उद्देश्य के साथ की गई थी। उन्होंने कहा कि आज यह ट्रस्ट मध्यप्रदेश में स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालय के माध्यम से सर्वोत्तम शिक्षा प्रदान करने के लिए जाना जाता है। उन्होंने कहा कि अतिथि के रूप में डॉ. के. कस्तूरीरंगन को अपने साथ पाकर हम गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं। अतिथि प्रशस्ति पत्र का वाचन डॉ. उत्तम शर्मा ने किया। मुख्य अतिथि पद्म विभूषण डॉ. के. कस्तूरीरंगन ने अपने भाषण की शुरुआत विश्वविद्यालय को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद देकर की।
उन्होंने कहा कि खगोल विज्ञान केवल भौतिकी या रसायन विज्ञान या गणित की एक शाखा नहीं है, वास्तव में यह एक बहु-विषयक क्षेत्र है और इसे समझने के लिए हमें सभी विषयों का ज्ञान होना आवश्यक है। खगोल विज्ञान 21वीं सदी का विषय है। उन्होंने कहा कि आर्यभट्ट पहले व्यक्ति थे जिन्होंने दिन और रात की अवधारणा को समझाया। वह यह समझाने वाले पहले व्यक्ति भी थे कि पृथ्वी गोल है और यह अपनी धुरी पर घूमती है। भारत द्वारा प्रक्षेपित पहले उपग्रह का नाम भी आर्यभट्ट था। उन्होंने सैटेलाइट को बनाने का अपना अनुभव साझा किया और कहा कि यह कितना चुनौतीपूर्ण था और इसे बनाने के लिए उन्हें केवल 36 महीने का समय दिया गया था।