मप्र विस के 14 चुनाव; निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी पर नहीं जीत पाए वोटर्स का विश्वास

निर्दलियों का 67 साल का रिकॉर्ड 1962 : 55प्रत्याशी जीते थे 2003 : 2 जीते जो सबसे कम 1990 : 2,730 सबसे ज्यादा प्रत्याशी

मप्र विस के 14 चुनाव; निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी पर नहीं जीत पाए वोटर्स का विश्वास

भोपाल। मध्यप्रदेश में हर विधानसभा चुनाव में नए रिकॉर्ड बन रहे हैं। वर्ष 1951 से 2018 तक के चुनावी इतिहास में निर्दलीय लड़ने वाले प्रत्याशियों की संख्या बढ़ी है लेकिन जीतने वालों का ग्राफ  फ घटा है। अकेले वर्ष 1962 के चुनाव में सर्वाधिक 55 प्रत्याशी जीते थे। यह रिकॉर्ड 67 साल में अब तक नहीं टूटा। इन सालों में साल 2003 में महज 2 निर्दलीय प्रत्याशी ही जीते थे जो अब तक का सबसे कम आंकड़ा है। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में विधानसभा के लिए 14 आम चुनाव हुए। वर्ष 1951 में सबसे कम 184 सीटें थीं। बाद में छत्तीसगढ़ के साथ रहने पर प्रदेश में 320 सीटें हो गईं और छग के अलग राज्य बनने से सीटें घटकर 230 ही बचीं।

ये अपवाद जो दो बार लगातार निर्दलीय जीते

छतरपुर जिले के महाराज विजावर गोविंद सिंह वर्ष 1962 में बिजावर और 1967 में बड़ा मलहरा विस चुनाव लगातार निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीते। पृथ्वीपुर से भी बृजेन्द्र सिंह राठौर लगातार दो बार निर्दलीय जीते थे। बाद में वे कांग्रेस में शामिल हो गए। पारस सकलेचा भी रतलाम शहर से जीते। परिणामों के आंकड़े बताते हैं कि 95 फीसदी निर्दलीय विधायक दूसरी बार स्वतंत्र लड़कर चुनाव नहीं जीत पाए।

अब पार्टी से टूटे नेता ही जीत पा रहे चुनाव

सोहागपुर से विधायक बनीं किन्नर शबनम मौसी किसी पार्टी में नहीं रहीं जबकि अधिकांश जीते निर्दलीय विधायक किसी न किसी पार्टी में रहे हैं। इनमें बृजराज सिंह चौहान श्योपुर (कांग्रेस), रामप्रताप सिंह नागौद (कांग्रेस), पुष्पराज सिंह रीवा, , सुनीलम मुलताई (सपा), प्रभुदयाल गहलोत सैलाना(कांग्रेस), मुन्ना सिंह नरवरिया मेहगांव, दिनेश राय मुनमुन, सुरेन्द्र सिंह शेरा, दिलीप सिंह गुर्जर खाचरौद आदि हैं।

निर्दलीय विधायक को कम फायदा , नुकसान ज्यादा

स्वतंत्र तौर पर वही प्रत्याशी मैदान में होता है जिसे भाजपा या कांग्रेस से टिकट नहीं मिलता है। वर्तमान में इतनी पार्टियां हो गई हैं कि कोई न कोई बैनर मिल जाता है, बावजूद बहुत से प्रत्याशी निर्दलीय लड़ जाते हैं। स्वतंत्र प्रत्याशी को सरकार का सहयोग कम रहता है। मानवेन्द्र सिंह भंवर राजा, पूर्व विधायक (वर्ष 2013 में भाजपा से टिकट कटने पर निर्दलीय लड़े और जीते)

जानिए क्यों लगातार बढ़ रहे हैं निर्दलीय प्रत्याशी 

  • पहले राजनीतिक दल कम थे: वर्ष 1951 के चुनाव में महज 11 नेशनल और दो राज्य स्तर की पार्टियां होने पर 469 निर्दलीय प्रत्याशी चुनाव मैदान में कूदे। इनमें 23 को सफलता मिली।
  • दलों की संख्या बढ़ी-1990 के चुनाव में राष्ट्रीय के अलावा अन्य पार्टियों की संख्या बढ़कर 20 हुईं, जिससे निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या 2,730 हुई। जीते सिर्फ 10।
  • टिकट नहीं मिलना: चुनाव के दौरान राजनीतिक दल से टिकट का कटना, पार्टी छोड़ना, गुटबाजी और असंतोष के चलते भी मैदान में आने लगे।
  • चुनाव लड़ने में जागरुकता: गांव और ब्लॉक स्तर के नेता चुनाव मैदान में आने लगे।